बाद मुद्दत उसे देखा, लोगों
वो ज़रा भी नहीं बदला,लोगों
खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगों
उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो
अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगों
दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगों
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगों
क्षितिज जहा संभव सा लगता है मिलन धरती और आकाश का , क्षितिज जिसकी हर शह खुबसूरत सी है , मानो असंभव भी हो गया हो सम्भव तब , क्षितिज तुम्हारे आने की आस और , मेरे सपनो की दुनिया ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
Monday, August 30, 2010
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगों
Labels:
परवीन शाकिर
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बहुत अच्छी कविता धन्यवाद|
ReplyDeleteकम शब्द, नया अंदाज - बहुत अच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें |
’लोगो’ को ’लोगों ’ करें तो अच्छा लगेगा ।
सराहना और सुझावों के लिये आप सभी का शुक्रिया.
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