बाद मुद्दत उसे देखा, लोगों
वो ज़रा भी नहीं बदला,लोगों
खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगों
उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो
अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगों
दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगों
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगों
क्षितिज जहा संभव सा लगता है मिलन धरती और आकाश का , क्षितिज जिसकी हर शह खुबसूरत सी है , मानो असंभव भी हो गया हो सम्भव तब , क्षितिज तुम्हारे आने की आस और , मेरे सपनो की दुनिया ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
Monday, August 30, 2010
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगों
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें........
ज़िंदगी जब भी तेरी बज्म में लाती है हमें !
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें !!
सुर्ख फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें !
दिन ढले यूं तेरी आवाज़ बुलाती है हमें !!
याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से !
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें !!
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यों है !
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें !!
Sunday, August 15, 2010
क्या जिन्दगी इसी को कहते है दोस्त..............
मुझे उम्मीद थी एक जवाब की
मुझे एक बेहूदा सा सवाल मिला है
क्या जिन्दगी इसी को कहते है दोस्त ,
जब दिल ने चाहा , जीना
तब ही मौत का पैगाम मिला है
मुझे तलाश थी एक हंसी दुश्मन की
मुझे हर कदम दोस्ती का नजराना मिला है
क्या हकीकत यही है प्यार की दोस्त ,
जब दिल ने चाहा, मिलन
तब ही जुदाई का फरमान मिला है
मुझे चाहत थी गुमशुदा होने की
मुझे हर दौर में चर्चा-ए-आम मिला है
क्या बंदगी इसी को कहते है दोस्त,
जब दिल ने चाहा, वीराना
तब ही रौनके-ए-महफ़िल का नाम मिला है l
Thursday, August 12, 2010
कहाँ है चांदनी ?
उसे देखो
खिडकियों से भीतर ,
परदों के पार,
मखमली घास पर
कहां नहीं है उसकी गमक
कहाँ नहीं है उसकी ठंडक
खलिहान के निकट
चौपाल के गट्टे पर
सड़क के किनारे
रेट के कणों मे
पर्वत के पेड़ पर
कहाँ नहीं है उसकी गमक
कहां नहीं है उसकी महक
तुम ?
क्या है तुम्हारें पास ?
केवल विराट शून्य भरा एक
आकाश ?
तुम वहीं रह गए चाँद
देखो , कहाँ - कहाँ पहुँच गई
तुम्हारी चांदनी
Monday, August 9, 2010
चाँदनी
इक लड़की पागल दीवानी,
गुमसुम चुप-चुपसी रहती थी
बारिश सा शोर न थाउसमें,
सागर की तरह वोबहती थी
कोई उस को पढ़ न पाया,
न कोई उसको समझा तब
छोटी उदास आँखें उसकी,
न जाने क्या-क्याकहती थी
शख़्स जो अक़्सर दिखता था, उस दिल के झरोखे में
दर्द कई वो देता था, रखता था उसको धोखे में
जितने पल रुकता था आकर, वो उसमें सिमटी रहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
इक दिन ऐसा भी आया, वो आया पर दर नहीं खुला
दरवाज़े पर हँसता था जो, इक चेहरा उस को नहीं मिला
आँसू के हर्फ़ वहाँ थे, और था वफ़ाका किस्सा भी
तब जान गये आख़िर, सब कैसे वोटूटी, कहाँ मिटी
समझा तब लोगों ने उसको, कैसे वो ताने सहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
बाद उसके ख़त भी मिले, जिनमें कई प्यार की बातें थी
सौगातें थी पाक दुआ की, भेजी चाँदनी रातें थी
लिखा था उसने, सम्हल के रहना, इतना भी मत गुस्सा करना
अब और कोई न सीखेगा, तुम से जीना, तुम पर मरना
अब वो पागल लड़की नहीं रही, जो तुम को खूब समझती थी
हर गुस्से को हर चुप को, आसानी से जो पढ़ती थी
समझा वो भी अब जाकर, क्या उसकी आँखें कहती थी
था प्यार बला का उससे ही, वो जिसके ताने सहती थी
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी
Friday, August 6, 2010
क्या क्या न ख़्वाब हिज्र के मौसम में खो गए
क्या क्या न ख़्वाब हिज्र के मौसम में खो गए
हम जागते रहे थे मगर बख्त सो गए
आँचल में फूल ले के कहाँ जा रही हूँ मैं
जो आने वाले लोग थे वो लोग तो गए
क्या जानिये उफ़क के उधर क्या तिलिस्म है
लौटे नहीं ज़मीन पे इक बार जो गए
आँखों में धीरे धीरे उतर के पुराने गम
पलकों पे नन्हें नन्हें सितारे पिरो गए
वो बचपने की नींद तो अब ख़्वाब हो गई
क्या उम्र थी कि रात हुई और सो गए
Wednesday, August 4, 2010
अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए
बरसात में भी याद जब न उनको हम आए
मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर
भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए
दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा
ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए
बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है
और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए
शाखें हैं तो वो रक़्स में, पत्ते हैं तो रम में
पानी का नशा है कि दरख्तों को चढ़ जाए
हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू
बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छंकाए
अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे
रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए
मौसम
अब तेरे मेरे बीच कोई फ़ासला भी हो
हम लोग जब मिले तो कोई दूसरा भी हो
तू जानता नहीं मेरी चाहत अजीब है
मुझको मना रहा हैं कभी ख़ुद खफ़ा भी हो
तू बेवफ़ा नहीं है मगर बेवफ़ाई कर
उसकी नज़र में रहने का कुछ सिलसिला भी हो
पतझड़ के टूटते हुए पत्तों के साथ-साथ
मौसम कभी तो बदलेगा ये आसरा भी हो
चुपचाप उसको बैठ के देखूँ तमाम रात
जागा हुआ भी हो कोई सोया हुआ भी हो
उसके लिए तो मैंने यहाँ तक दुआएँ कीं
मेरी तरह से कोई उसे चाहता भी हो
इतरी सियाह रात में किसको सदाएँ दूँ
ऐसा चिराग़ दे जो कभी बोलता भी हो
Sunday, August 1, 2010
अब कोई दोस्त नया क्या करना
अब कोई दोस्त नया क्या करना
भर गया ज़ख्म हरा क्या करना
उस से अब ज़िक्रे-वफ़ा क्या करना
हौसला हार गया क्या करना
वो भी दुश्मन तो नहीं है अपना
अपने ही हक में दुआ क्या करना
याद जो आये भुलाते रहना
अब हमें इस के सिवा क्या करना
शोर कितना था सुनाता किस को
और अब शोर बपा क्या करना
जिस को मुँह का भी कहा याद नहीं
उस के हाथों का लिखा क्या करना
जब तू ही मिल न सका मुझ को 'निज़ाम'
मिल गई खल्क़े ख़ुदा क्या करना
दोस्ती क्या है ......
कहो तो ख्वाब,मानो तो हकीकत ,