क्या क्या न ख़्वाब हिज्र के मौसम में खो गए
हम जागते रहे थे मगर बख्त सो गए
आँचल में फूल ले के कहाँ जा रही हूँ मैं
जो आने वाले लोग थे वो लोग तो गए
क्या जानिये उफ़क के उधर क्या तिलिस्म है
लौटे नहीं ज़मीन पे इक बार जो गए
आँखों में धीरे धीरे उतर के पुराने गम
पलकों पे नन्हें नन्हें सितारे पिरो गए
वो बचपने की नींद तो अब ख़्वाब हो गई
क्या उम्र थी कि रात हुई और सो गए
क्षितिज जहा संभव सा लगता है मिलन धरती और आकाश का , क्षितिज जिसकी हर शह खुबसूरत सी है , मानो असंभव भी हो गया हो सम्भव तब , क्षितिज तुम्हारे आने की आस और , मेरे सपनो की दुनिया ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
Friday, August 6, 2010
क्या क्या न ख़्वाब हिज्र के मौसम में खो गए
Labels:
परवीन शाकिर
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