Friday, November 12, 2010

प्रतीक्षा...


मैंने नहीं किया तुमसे कभी
किसी बात पर गिला शिकवा
ना कभी खाई कोई कसम
और ना ही बाध्य किया तुम्हे !
मैंने मचलकर , कभी नहीं कि ,
किसी जिद्दी बच्चे सी कोई ख्वाहिश ,
ना ही कभी जताया ,
तुम पर अपना अधिकार ,
मैंने कभी नहीं कहा तुमसे ,
कि बहुत दुखता है मुझे ,
तुम्हारा दिया हुआ कोई भी जख्म,
ना कभी कि कोशिश ,
कि बांध लू तुम्हारे बहाव को !
मैंने कभी नहीं बाँधा तुम्हे ,
संबोधन कि डोर से ,
ना ही अपने रिश्ते को ,
दिया कोई नाम |
मै बस खडी रही सदियों से मौन |
यो ही प्रतीक्षारत ,
अपने विश्वास कि बाँहे फैलाये |
तुम्हारी रहगुजर पर
कि किसी दिन तो आओगे तुम ,
और आकर ,उड़ेल दोगे मेरी झोली में ,
सारे जहाँ कि खुशियाँ |

Thursday, November 4, 2010

ओ अज्ञात..


कब तक छिपे रहोगे ओ अज्ञात |
इस अजनबी दुनिया की भीड़ में,
बार बार मुझसे मेरे मन ने ,
जिज्ञासा से , उत्कंठा से ,
लालसा से पूछा है , वो कौन है अज्ञात ?
मै तो सिर्फ इतना जानती हूँ ,
अक्सर, जब मैंने
वेणी गुथतें गुथतें , दर्पण में स्वयं को देखा है ,
फूल को जब सही जगह टांका है ,
काजल से जब भी आंची है आँखे ,
मेरी आँखों में मुस्काएं हो तुम
मेरे कंठ से बन गीत गुनगुनाए हो तुम |
एक ताजी हवां का झोका बन , चोरी से आये हो तुम |
और छूकर वेणी फूलों की ,
पूरे घर में खुशबू बन के महके हो तुम |

ऐसे ही कुछ और क्षणों में ...
आगमन हुआ है तुम्हारा |
जब भी प्रज्ज्वलित किया है दीपक,
उसकी लौ में प्रकाश पुंज ढला है हर बार ,
तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब |
पूजन वंदन में जब जब,
प्रभू मूरत के सामने मूंदी है आँखे ,
तो हर बार ऐसा लगा है ,
कि मेरी बायीं तरफ ,
आँखें मूंदे बैठे हो तुम |
खोलते ही आँखे न जाने कहाँ
छिप जाते हो तुम |
कब तक छिपे रहोगे ओ अज्ञात |
इस अजनबी दुनिया कि भीड़ में ....