Thursday, November 4, 2010

ओ अज्ञात..


कब तक छिपे रहोगे ओ अज्ञात |
इस अजनबी दुनिया की भीड़ में,
बार बार मुझसे मेरे मन ने ,
जिज्ञासा से , उत्कंठा से ,
लालसा से पूछा है , वो कौन है अज्ञात ?
मै तो सिर्फ इतना जानती हूँ ,
अक्सर, जब मैंने
वेणी गुथतें गुथतें , दर्पण में स्वयं को देखा है ,
फूल को जब सही जगह टांका है ,
काजल से जब भी आंची है आँखे ,
मेरी आँखों में मुस्काएं हो तुम
मेरे कंठ से बन गीत गुनगुनाए हो तुम |
एक ताजी हवां का झोका बन , चोरी से आये हो तुम |
और छूकर वेणी फूलों की ,
पूरे घर में खुशबू बन के महके हो तुम |

ऐसे ही कुछ और क्षणों में ...
आगमन हुआ है तुम्हारा |
जब भी प्रज्ज्वलित किया है दीपक,
उसकी लौ में प्रकाश पुंज ढला है हर बार ,
तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब |
पूजन वंदन में जब जब,
प्रभू मूरत के सामने मूंदी है आँखे ,
तो हर बार ऐसा लगा है ,
कि मेरी बायीं तरफ ,
आँखें मूंदे बैठे हो तुम |
खोलते ही आँखे न जाने कहाँ
छिप जाते हो तुम |
कब तक छिपे रहोगे ओ अज्ञात |
इस अजनबी दुनिया कि भीड़ में ....

5 comments:

  1. अच्छी रचना
    आपको सपरिवार दिपोत्सव की ढेरों शुभकामनाएँ
    मेरी पहली लघु कहानी पढ़ने के लिये आप सरोवर पर सादर आमंत्रित हैं

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  2. सोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...

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  3. आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं ...

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  4. बहुत खूबसूरत रचना ...


    दीपावली की शुभकामनाएं

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  5. shilpa ji,,,, keep smile

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