Wednesday, October 27, 2010

जिन्दगी.


जिन्दगी ऐसे हर लम्हा ढलती रही,
रेट मुट्ठी से जैसे फिसलती रही |
दिन थका मांदा एक और सोता रहा ,
रात बिस्तर पर करवट बदलती रही |
कह ना पाया जुबां से वो कुछ आज भी ,
आँख में दिल की दुनिया मचलती रही|
जहाँ की पटरियों पर तेरी याद की ,
रेल हर शाम रुक रुक कर चलती रही |
आग में तप के सोना निखरता रहा ,
जिन्दगी ठोकरों मै संभलती रही |
शहर में नफरतों की हवा थी मगर ,
प्यार की शम्मा बेखोफ जलती रही |
किस तरह हो भरोसा आप पर ,
हर कदम दोस्ती मुझको छलती रही |

8 comments:

  1. किस तरह हो भरोसा आप पर ,
    हर कदम दोस्ती मुझको छलती रही |

    ज़माने को देख कर कई बार यकीन डगमगाता तो है

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  2. इस शानदार रचना पर बधाई ....जैसे मैंने पहले भी कहा है आप कुछ उचाईयों को छूती हैं यही मुझे पसंद आता है ....बहुत सुन्दर भाव भर दिए हैं आपने ....और तस्वीर के चयन में आपकी पसंद की दाद देता हूँ |

    फुर्सत मिले तो 'आदत.. मुस्कुराने की' पर आकर नयी पोस्ट ज़रूर पढ़े .........धन्यवाद |

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  3. शहर में नफरतों की हवा थी मगर ,
    प्यार की शम्मा बेखोफ जलती रही
    बहुत सुंदर , बधाई

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  4. यादों की रेल ..वाह क्या बात कही है ...बहुत खूब

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  5. जहाँ की पटरियों पर तेरी याद की,
    रेल हर शाम रुक रुक कर चलती रही"

    बहुत खूब

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  6. Seedhe Saral Shabd aur bahut saaree Komal Bhavnaao ke saath rachi yeh Rachna tumne .. Badhaayee

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  7. जब से जुबा तेरी होने लगी है
    आदत मुझ को देखो क्या होने लगी है
    अब सोच कर सोचता की साथ छोड़ दू तेरा
    पर न जाने, अब रोज़ क्यू याद तेरी आने लगी है

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