Thursday, October 21, 2010

दुविधा ..




ये क्या दस्तूर है,ये कैसे नजराने मिले है|
जब भी मोड़ आया , नए हमराही मिले है |
या खुदा ये तेरी खुदाई है कैसा खेल ,
शिकस्त के आसार थे जहाँ
वहां फतह के नजराने मिले है |
मै तो हैरान थी की प्यार का दस्तूर ना निभाया ,
तुने ऐसे करिश्मे दिखाएँ की ,
जो मिले प्यार के दीवाने मिले है |
अभी फलक पर मेरी जीत बाकी है,
अभी नूर की सूरत देखनी बाकी है |
पर तू कहां कम है ?
जब जब लगा अब मंजिल करीब है ,
तब -तब मुझे ,
रुकने के बहाने मिले है ||

2 comments:

  1. अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं

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  2. जब जब लगा अब मंजिल करीब है ,
    तब -तब मुझे ,
    रुकने के बहाने मिले है |


    behad khubsurat likha hain.. Shilpa ji Apne... behad pasand aayi...

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